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भगवान तुम कहाँ हो ?

भगवान तुम कहाँ हो ?

अक्सर चीत्कार कर उठता है मेरा मन
देखकर उन बजबजाते लोगों की पीड़ा
और अगले ही पल मंदिर से आते प्रवचन 
मेरी क्रोधाग्नि में उड़ेल देते हैं मनभर घी 

हाँ, हाँ भगवान मैं क्रोधित हूँ तुम पर 
तुम्हारे अनुयाइयों द्वारा बनाए गए विधान पर
जिन्हें तुम्हारे होने का जरा भी खौफ नहीं है 
जिनके लिए तुम सदियों से हो सिर्फ एक ढ़ाल 

सोमनाथ हो या अयोध्या ... सब गवाह हैं 
अकर्मण्य लोगों की पूजनीय भीड़ के केवल 
हाथ तक हिलाना नहीं चाहते वे लोग , और 
तुम किसी गुलाम की तरह बिचौलियों के साथ हो  

साइंस के साथ नई सभ्यता में भी तुम संदिग्ध हो 
भले ही मान लिया जाय कि तुम हो , किन्तु 
अक्सर तुम नदारद ही मिले हो , जरूरत के समय 
तुमने ही दी हैं असंख्य वजहें , तुम्हारे न होने की 

सच कहना,  क्या तुम वाकई हो कहीं ?
अगर हो तो क्या तुम सच में मालिक हो ?
अगर तुम सच में मालिक हो तो क्या विकलांग हो ?
तुम्हें ये चीत्कार और असमानता क्यों नहीं दिखती ? 

क्यों नहीं दिखते वे लोग , जो तुम्हें धकेल बन गए हैं ईश 
जिनके दर्शनों की  लाखों में हैं फीस, कृपा के हैं चार्ज़ 
माया को कहते जो असार, क्यों हैं वे बहरूपिये कुबेरपति ?
दिखाकर तुम्हारा भय, कैसे हुआ हैं इतना बड़ा  कद ?

मैं भी सो नहीं पाता हूँ ठीक से , तुम्हारे कुकर्मों को देखकर 
और सच मानों , जिस रोज तुम कभी सामने आ भी गए तो 
मैं भूल जाऊंगा कि तुम भगवान हो , तुमसे सौ-सौ सवाल करूंगा 
तुम्हारा  मौन और अकर्मण्यता इस दुनिया के लिए अभिशाप है ।

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